Acharya Chanakya in Hindi
आचार्य चाणक्य (Acharya Chanakya) इतिहास में दर्ज एक ऐसा नाम है जिसकी छवि सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी ज्यों की त्यों बनी हुई है । आज भी उसकी नीतियों का अनुसरण करना राजनीतिक परंपरा का मूल अंग है । अगर यह कहा जाए कि चाणक्य (Acharya Chanakya) के बिना राजनीति या अर्थशास्त्र की बात बेमानी है , तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
क्योंकि उस जैसा अर्थशास्त्री नीतिज्ञ , दूरदृष्टा व प्रतिभा का धनी होना हर किसी के वश की बात नहीं है । एक दुबला – पतला व कुरूप सा दिखने वाला चाणक्य वर्तमान में भी अपनी नीतियों के साथ जिस प्रकार राजनीतिक , सामाजिक एवं वाणिज्यिक परिवेश में चालक , परिचालक के रूप में मौजूद है , बुद्धिजीवियों के लिए एक शोध का विषय है ।
आम कहावत है कि ‘ अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ‘ यह किसी आलसी या बहानेबाज व्यक्ति के लिए तो हो सकती है लेकिन चाणक्य (Acharya Chanakya) जैसे प्रतिभा के धनी , धुन के पक्के और साहसिक व्यक्ति के लिए इसका कोई स्थान नहीं है । क्योंकि यह चाणक्य (Acharya Chanakya) ही थे जिसने एक अकेले होते हुए भी मगध के शक्तिशाली राजा धर्मनंद को शिकस्त देकर भारत से ‘ नंद वंश ‘ को समाप्त करके , मौर्य वंश की स्थापना करने का श्रेय हासिल किया ।
आखिर एक – अकेला व्यक्ति इतना पराक्रम कैसे कर सकता है ? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब चाणक्य (Acharya Chanakya) के जीवन दर्शन से ही मिल सकता है । उसका जीवन उलझनों से भरा हुआ है जिन्हें वह अपनी कुशागर बुद्धि की बदौलत चीरता गया और इतिहास की एक अमर कथा बन गया
आचार्य चाणक्य का इतिहास | Acharya Chanakya ka Itihas in Hindi
इतिहास चाणक्य (Acharya Chanakya) के जन्म स्थान पर मौन है । लेकिन कहीं इतिहासकारों ने उसे पाकिस्तान के पंजाब का निवासी बताया है और कहीं उसके पूर्वजों को केरल के रहने वाला बताया है । चाणक्य (Acharya Chanakya) का जीवन – काल 370-283 ई . पूर्व रहा है ।
उसके बचपन का नाम कौटिल्य था , बाद में उसने अपना यह नाम बदलकर विष्णुगुप्त रख लिया था । उसका ‘ चाणक्य ‘ नाम उसके पिता के ‘ चणक ‘ नाम पर रखा हुआ बताया जाता है । चणक एक साधारण व समझदार व्यक्ति था जो मगध के राजा धर्मानंद के पास सलाहकार के रूप में नियुक्त था ।
लेकिन राजा धर्मानंद के एक चापलूस मंत्री – राक्षस ने राजा को उसके विरुद्ध भड़का दिया जिस कारण राजा ने चणक को बंदी बना लिया । इस घटना ने बालक चाणक्य को स्तब्ध कर दिया । अपने पिता को बंदी बनाए जाने से बालक अत्यंत दुखी हुआ और राजा के इस षड़यंत्र को जानकार उसने अपने आपको सुरक्षित निकल जाने का रास्ता चुना क्योंकि उसने जान लिया था कि राजा मेरे बाप को अब जिंदा नहीं छोड़ेगा और फिर मेरी भी वह हत्या करवा सकता है ।
बालक चाणक्य पर यह घोर आपति और संकट का समय था । उसने हिम्मत से काम लिया और परिस्थितियों को समझकर पाटलिपुत्र से सही सलामत निकल गया । बालक चाणक्य जंगलों में पलायन कर गया । चलते – चलते वह कोसों दूर निकल आया ।
भूख – प्यास से व्याकुल बालक चाणक्य असहाय हो गया । दुर्भर जंगल की लम्बी यात्रा की थकावट से वह टूट गया । अब उससे चला नहीं जा रहा था । जब लड़खड़ाकर गिरने की नौबत आ गई तो वह नदी किनारे ही एक वृक्ष के तने से पीठ टिकाकर बैठ गया ।
उसके बाद उसे होश नहीं रहा । संयोग से आचार्य मोहन स्वामी गंगा स्नान से लौट रहे थे कि पेड़ से पीठ टिकाए बैठे एक बालक को देखकर चौंक पड़े- ‘ अरे ! यह कौन है ?
आचार्य मोहन स्वामी ने जल के कुछ छींटे उसके मुंह पर मारे । कुछ जल चुल्लू से उसके मुंह में डाला । बालक ने कुलमुलाकर आंखें खोली । आचार्य को प्रणाम कर बताया ” मेरा नाम विष्णुगुप्त है महात्मन । संसार में अकेला हूं।आचार्य मोहन स्वामी की पारखी नजरें गहराई से उस बालक का निरीक्षण कर रही थीं ।
इतना तो वे समझ ही चुके थे कि यह बालक अत्यधिक बुद्धिमान और साहसी है । आचार्य मोहन स्वामी ने कहा- “ देखो पुत्र ! मैं गांव की पाठशाला में अध्यापन का कार्य करता हूं । अकेले में रहता हूं । यह उम्र तुम्हारे पढ़ने – लिखने की है , अगर कुछ ज्ञान अर्जित करना चाहते हो तो मेरे साथ चलो ।
ज्ञान अर्जित न भी करना चाहो तो भी मेरे साथ चलो क्योंकि इस समय तुम्हें देखभाल की आवश्यकता है । तत्क्षण ही उसने झुककर आचार्य के चरण – स्पर्श किए और बोला- आपकी अनुकम्पा का में जीवन भर ऋणी रहूंगा , गुरुदेव ।
आप जैसे परम -पुरूष की छत्र – छाया में कुछ ज्ञान अर्जित कर सका तो सच में मनुष्य हो जाऊंगा । तत्पश्चात् मोहन स्वामी ने विधिवत् उसे अपना शिष्य स्वीकार कर शिक्षा देना आरंभ किया । अल्प समय में ही विष्णुगुप्त ने न केवल आचार्य बल्कि विद्यार्थियों के भी हृदय जीत लिए ।
इस प्रकार चाणक्य की प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई । अब वे तक्षशिला विश्वविद्यालय में जाकर पढ़ने के इच्छुक था , किन्तु यह कार्य अत्यधिक कठिन था । तक्षशिला में प्रवेश पाने के लिए तो कई देशों के राजकुमार तक प्रतिक्षा सूची में थे , फिर भला अनाथ और निर्धन विष्णुगुप्त को वहां स्थान कैसे मिलता । मगर विष्णुगुप्त धुन के पक्के थे ।
उन्हें अपनी बुद्धि पर पूरा भरोसा था । उन्होंने अपनी यह इच्छा आचार्य मोहन स्वामी के समक्ष प्रकट की तो उन्होंने उन्हें तक्षशिला में पढ़ाने वाले अपने एक मित्र आचार्य पुण्डरीकाक्ष का पता देकर भेज दिया । विष्णुगुप्त उससे जाकर मिले ।
पुण्डरीकाक्ष ने उन्हें बताया कि यह असंभव है । उन्हें विद्यालय में प्रवेश नहीं मिल सकता । विष्णुगुप्त ने उनकी अनुनय – विनय की तो पुण्डरी काक्ष ने उन्हें कुलपति से मिलवाने का आश्वासन दिया । फिर वह समय भी शीघ्र ही आ गया जब आचार्य पुण्डरीकाक्ष विष्णुगुप्त को लेकर कुलपति के पास पहुंचे ।
उनके साथ एक कुरूप से युवक को देखकर कुलपति ने पूछा “ यह कौन है ? ‘ ‘ पुण्डरीकाक्ष कोई उत्तर दे पाते , उससे पहले ही विष्णुगुप्त बोल पड़े- मैं कौन हूं ? यही जानने के लिए आचार्य की कृपा से आपके श्री – चरणों में उपस्थित हुआ हूं ।
कुलपति विष्णुगुप्त के इस उत्तर से अत्याधिक प्रभावित हुए , बोले – युवक तो अति बुद्धिमान जान पड़ता है । हां महोदय ! पुण्डरीकाक्ष बोले : – ‘ इसकी कुशाग्र बुद्धि की प्रशंसा तो मेरे एक सहपाठी ने भी पत्र में लिखी है । पत्र में उन्होंने लिखा है कि अल्पकाल में ही विष्णुगुप्त ने व्याकरण और गणित में पाण्डित्य कर लिया है ।
अब वह उच्च शिक्षा प्राप्ति की अभिलाषा से तक्षशिला में प्रवेश का इच्छुक है , अतः इस कार्य में आप इसकी सहायता करें । श्रीमान ! यदि आपकी हो गई तो यह अद्भुत प्रतिभाशाली कृपा विद्यार्थी हमारे यहां शिक्षा प्राप्त कर सकेगा ।
‘ इच्छा तो मेरी भी यही है पुण्डरीकाक्ष , किन्तु यहां की स्थिति तुमसे छिपी नहीं । भारत के ही नहीं , विदेशों के भी कई राजकुमार प्रतिक्षारत हैं । ऐसे में बताओ मैं क्या करूं ? पुण्डरीकाक्ष के उत्तर देने से पूर्व ही विष्णुगुप्त बोले- आप वही करें आचार्य जो एक पिता अपने पुत्र के लिए करता अथवा सोचता है ।
मेरा इस संसार में कोई नहीं है आचार्य । मैं आपको ही माता – पिता मानकर आपकी शरण में आया हूं । फिर मेरी यह इच्छा भी नहीं है कि मुझे राजपुत्रों के साथ बैठकर पढ़ने की अनुमति मिले । मैं तो कक्षा के द्वार पर बैठकर आचार्य के कंठ से उद्धत वाणी सुनना चाहता हूं तुम्हारी भावना देखकर मेरा हृदय भर आया है ।
तुम्हारे स्वर में वेदना है विष्णुगुप्त ! तुम्हारे भीतर मैं एक ज्वाला – सी धधकती देख रहा हूं । ठीक है , हम तुम्हें अपना पुत्र मानकर विश्वविद्यालय में पढ़ने की अनुमति देते हैं । इस प्रकार विष्णुगुप्त उच्च शिक्षा के अध्ययन में लग गए ।
चाणक्य ने खूब मन लगाकर अपनी शिक्षा पूर्ण की । तत्पश्चात अपने पांडित्य के बल पर वे तक्षशिला में ही प्राचार्य के पद पर आसीन हो गए । फिर एक दिन अपना अगला लक्ष्य निर्धारित कर चाणक्य मगध की ओर चल पड़े मगध के अमात्य शकटार से इसी बीच मार्ग में उनकी भेंट हुई ।
शकटार धर्मनंद के मंत्री अवश्य थे किन्तु वे उसकी विलासिताओं से दुखी थे और चाहते थे कि किसी प्रकार मगध को नंद के अत्याचारों से मुक्ति मिले , अतः वे चाणक्य (Acharya Chanakya) के साथ हो गए और उसे अपने ले घर आए । उन्हीं दिनों नंद की माता का श्राद्धोत्सव था ।
सारी व्यवस्था अमात्य शकटार के हाथों में थी । उन्हीं की कोशिशों से आचार्य चाणक्य (Acharya Chanakya)को उस उत्सव में अग्रासन दिया गया । तभी सभा में महानंद आए और अग्रासन पर काले – कुरूप ब्राह्मण को देखकर विफर उठे ।
उन्होंने चाणक्य (Acharya Chanakya) को अपमानित किया और सभा से धक्का देकर निकाल दिया । तब ब्रह्मण चाणक्य ने अपनी शिखा ( चोटी ) खोलकर प्रतिज्ञा की कि इस शिखा में अत्याचारों से मुक्त कर देंगे । इस अपमान से चाणक्य (Acharya Chanakya) आग – बबूला हो गया ।
उसके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़कने लगी । लेकिन वक्त का तकाजा देखकर चाणक्य ने इन परिस्थितियों में खामोश रहना ही सही समझा । वह पाटलीपुत्र गांठ वे तब ही लगाएंगे जब मगध को महानंद के से कुछ दूर एकांत में रहने लगा ।
यहां उसने अपना एक संगठन बनाना शुरू कर दिया । वह अपनी कुटिया में आस – पास के आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने लगा । कुछ ही समय काल में उसके पास एक संगठित छात्रों का संघ बन गया । धीरे धीरे उसने अपने इस संघ में आम जनता को भी शामिल करना शुरू कर दिया ।
अपने संगठन के संगठनात्मक ढांचे के शुरूआती दौर में उसकी मुलाकात चन्द्रागुप्त से हो गई थी । क्योंकि राजा धर्मानंद ने अपनी दूसरी रानियों के बहकावे में आकर चन्द्रगुप्त की मां मुरादेवी को राज महल से निकाल दिया था ।
मुरा देवी अपने बेटे चन्द्रगुप्त के साथ जंगलों में आदिवासी लोगों के पास रहने लगी थी एक दिन चाणक्य उसी रास्ते से गुजर रहे थे तो उन्होंने चन्द्रगुप्त को बच्चों के साथ खेलता हुआ देखा तो चाणक्य की पारखी नजरों ने बालक में प्रतिभा को पहचान लिया ।
उसी समय चाणक्य (Acharya Chanakya) बालक चन्द्रगुप्त को अपने पास ले गया और उसे शिक्षित करने लगा । चाणक्य (Acharya Chanakya) ने चन्द्रगुप्त को शस्त्र – विद्या में भी निपुण कर दिया । बेशक चाणक्य यह सब सहजता से कर रहा था लेकिन मन में अपमान की जो चिंगारी सुलग रही थी वह उसे टिकने नहीं दे रही थी ।
बड़ी जल्दी उसने चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में एक सेना तैयार कर ली । चाणक्य अवसर की तलाश में था कि कब राजा नंद पर आक्रमण किया जाए । वह अपने गुप्तचरों के माध्यम से पाटलीपुत्र में जारी गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करता रहता था ।
इसके लिए उसके दो विशेष शिष्य नियुक्त थे । आखिर एक दिन उसने योजना के तहत चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में नंद पर धावा बोल दिया । यह उसका पहला आक्रमण था जो युद्ध विद्या में माहिर राजा धर्मानंद के सामने चुनौती न बन सका ।
इसमें चाणक्य की सेना को पर मजबूर होना पड़ा । भागने अपनी इस हार से चाणक्य को पछतावा तो जरूर हुआ लेकिन वह हौंसला हारकर बैठने वालों में नहीं था । उसने अब कूटनीति से काम लेना शुरू किया । अपने कुछ वफादारों को उसने पाटलीपुत्र में नियुक्ति के लिए भेज दिया जो एक षड़यंत्र के तहत राजा की सेना में शामिल हो गए ।
क्योंकि अब चाणक्य को हार मंजूर नहीं थी । वह अब अंतिम और करारा हमला करने के प्रायोजन में था । अतः उसने हर दृष्टिकोण से परिस्थितियों को समझा और नीतिपरक तथ्यों से काम लिया । उसने राजा धर्मानंद के कई विश्वासपात्रों को भी अपने पाले में शामिल कर लिया जो राजा के तानाशाह रवैये से दुखी थे । चाणक्य ने राजा को आर्थिक तौर से भी कमजोर करना शुरू कर दिया ।
अपनी आर्थिक जरूरतों को चाणक्य राजा के धन से ही पूरा करने लगा । जिसके बारे राजा बिल्कुल अनभिज्ञ था । राजा के धन – माल से भरे गोदामों से धन पाने के लिए चाणक्य ने उसके कर्मचारियों से मिली भगत कर ली । परिणामस्वरूप चाणक्य ने कूटनीति से राजा को हर तरफ से कमजोर करना शुरू कर दिया ।
चापलूसों से घिरा राजा चाणक्य की इन तैयारियों से बेखबर रहा । चाणक्य ने विशाल और मजबूत सेना के साथ फिर धर्मानंद पर आक्रमण कर दिया । इस लड़ाई का इतिहास के पास कोई पूरा ब्यौरा नहीं है । लेकिन इतना जरूर है कि इस लड़ाई में चाणक्य ने धर्मानंद को बंदी बना लिया और युद्ध क्षेत्र में ही उसको मार दिया गया ।
राजा की मौत के बाद उसके बचे हुए सैनिक अपनी जान बचाकर जंगलों में भाग गए । आखिर चाणक्य ने जो प्रण लिया था , उसे पूरा कर दिखाया और मगध से नंद वश की समाप्ति और चन्द्रगुप्त को आसीन करके मौर्य वंश की स्थापना कर दी ।
मगध के साम्राज्य पर अधिकार कर के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य (Acharya Chanakya) को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया । उसके लिए हर सुख सुविधा का इंतजाम किया गया लेकिन चाणक्य प्रधानमंत्री तो बन गया मगर इन राजसी सुख सुविधाओं से दूर अपनी एक झोपड़ी में ही रहने लगा ।
चन्द्रगुप्त अपना हर कार्य उसकी सलाह से ही करता । चाणक्य (Acharya Chanakya) झोपड़ी में रहकर ही राज काज संभालता और चन्द्रगुप्त के विजयी अभियानों की रूपरेखा तैयार करता । उसके दिशा निर्देशन में चन्द्रगुप्त का साम्राज्य कंधार से लेकर कर्नाटक और पंजाब – गुजरात से लेकर अवध तक फैल गया था चन्द्रगुप्त के बाद उसका बेटा बिंदुसार गद्दी पर बैठा ।
उसके मन में किसी ने यह संदेह भर दिया कि उसकी मां की हत्या चाणक्य (Acharya Chanakya) ने करवाई है । बिंदूसार ने सच्चाई की बिना जांच पड़ताल किए उसे अपने राज्य से निकाल दिया । लेकिन जब वास्तविकता का पता चला तो उसे अपने किए पर दुःख हुआ ।
बिंदुसार ने अपने एक मंत्री सुबंधु को क्षमायाचना कर चाणक्य को वापिस लाने के लिए उसके पास भेजा । लेकिन सुबंधु चाणक्य से मन ही मन वैर भाव रखता था । इसी भावना के चलते उसने चाणक्य को लाने की बजाय उसे वहीं मार दिया ।
इस प्रकार इतिहास का यह मानव ईष्या – द्वैष की भेंट चढ़कर अपने जीवन से हाथ धो बैठा । बेशक चाणक्य मर गया लेकिन अपनी नीतियों से मानव को जीवन दशा देकर अमर हो गया । उसके द्वारा लिखित ‘ कौटिल्य अर्थशास्त्र व ‘ राजनीतिक समुच्चय ‘ जिसे चाणक्य – नीति कहा जाता है , समाज के लिए एक महान देन है ।
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