कोहिनूर हीरा | Kohinoor Heera in Hindi

Kohinoor Heera: कभी भारत की शान समझा जाने वाला कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) अक्सर सुर्खियों में आ ही जाता है । कारण कुछ भी हो , गाहे – बगाहे ये हीरा देश – दुनिया के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता रहता है ।

हाल ही में फिर यह सुर्खियों में आया जब भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हल्फनामा दायर कर बताया कि कोहिनूर पर अब भारत का हक नहीं है ।

तर्क था कि यह न तो युद्ध में लूटा गया है और न ही चोरी किया गया है , यह हीरा तो उपहार स्वरुप दिया गया है , जो ब्रिटेनी राजमहल की शोभा बढ़ा रहा है

इसे महाराजा रणजीत सिंह के बेटे दलीप सिंह ने ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को भेंट किया था । इसलिए अब इस पर भारत का कोई दावा नहीं है ।

Kohinoor Heera

लेकिन बेशक अब यह हीरा भारत वापिस नहीं लाया जा सकता , मगर भारतीय होने का जो इसे गौरव हासिल है , वो देशवासियों के लिए गर्व की बात है ।

यही एक विशेष कारण है कि भारतवासी इसके प्रति बहुत रुचि रखते हैं । हीरे तो और भी बेशकीमती हैं , मगर कोहिनूर पर ही सबका ध्यान क्यों जाता है ।

आखिर कुछ तो इसमें है जो इसे दूसरे हीरों से इतर दिखाता है । यह जितना बेशकीमती व आकर्षक है , उतना ही रोचक व दुर्गम इसका सफर है । इसने कई सदियों के वक्त को देखा है ।

वक्त के कई बदलते हालातों को देखा है । इसने किसी साम्राज्य को उदय होते देखा है और किसी सल्तनत के पतन का गवाह भी रहा है ।

किसी ने इसे हथियाने के लिए युद्ध किया और किसी ने इसकी हिफाजत में अपनी जान को दांव पर लगा दिया । अर्थात् इस हीरे ने बहुत उथल – पुथल भरा सफर तय किया है ।

कोहिनूर हीरे का इतिहास | History of Kohinoor Heera

कहां से मिला है ये कोहिनूर हीरा | Kohinoor Heera in Hindi

Kohinoor Heera

इसकी प्राप्ति पर भी कोई एकमत नहीं है । इसमें अलग प्रकार की मान्यताएं हैं । एक यह माना जाता है कि कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) वर्तमान भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के जिले में स्थित गोलकुंडा की खदानों से प्राप्त हुआ था ।

पर यह हीरा खदान से कब बाहर आया इसकी कोई पुख्ता जानकारी इतिहास में मिलती नहीं है ।

हालांकि भारत की गोलकुंडा की खदानों से कई बेशकीमती हीरे निकले हैं , जैसे दरियाई नूर , नूर- उन – ऐन , ग्रेट मुगल , ओरलोव , आगरा डायमंड , अहमदाबाद डायमंड , बोलिटी ऑफ इंडिया जैसे न जाने कितने ऐसे हीरे हैं

जो कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) जितने ही बेशकीमती हैं और उसी तरह ही रूस , फ्रांस अमेरिका , बंग्लादेश आदि देशों में भी हैं । शायद इन शानदार हीरों जैसा होने की वजह से ही कोहिनूर हीरा को भी गोलकुंडा से निकला हुआ मान लिया गया हो ।

एक अन्य कथा के अनुसार लगभग 3200 ई.पू. यह किसी को हीरा नदी की तली में मिला था और उसने यह हीरा दक्षिण भारत के तत्कालीन राजा को दे दिया ।

एक और किवदंती के अनुसार , कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) लगभग 5000 वर्ष पहले मालवा के राजा सत्राजित के पास था । महाभारतकाल में इसे ‘ स्यमन्तक मणि ‘ कहा जाता था ।

सत्राजित श्री कृष्ण जी की पत्नी सत्यभामा के पिता थे । उसने सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी । लेकिन श्रीकृष्ण जी ने यह मणि उन्हें ही ससम्मान वापिस कर दी ।

काकतीय वंश

यह हीरा 1323 ई तक दक्षिण में काकतीय वंश के राजाओं के पास था । उनके पास कहां से आया , यह कोई नहीं जानता । इस वंश के राजा सन् 1083 से ही शासन कर रहे थे ।

दिल्ली सल्तनत में 1320 में खिलजी वंश का अंत होने के बाद ग्यासुद्दीन तुगलक ने सत्ता संभाली । उसने अपने पुत्र उलघखान को सन् 1323 में काकतीय राजा प्रतापरुद्र पर आक्रमण के लिए भेजा ।

दोनो में वारांगल के स्थान पर युद्ध हुआ , जिसमें काकतीय राजा प्रतापरुद्र की हार हुई । उलघखान ने कई महीने वहां लूट – पाट मचाई और लूटा हुआ सोना – चांदी , हीरे – जवाहरात लेकर दिल्ली लौट आया ।

यह हीरा भी उसी लूट का हिस्सा था । इस प्रकार दक्षिण की हकूमतों से निकल कर यह हीरा दिल्ली सल्तनत के हाथ आ गया ।

दूसरा यह भी कहा जाता है कि यह हीरा 1310 में खिलजी वंश के पास आ चुका था । इसे अलाउद्दीन खिलजी के कुशल सेनापति मलिक काफुर ने वारांगल के मंदिर से लूट कर उसे भेंट किया था ।

मुगल वंश

कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera)अपनी यात्रा के दौरान सबसे अधिक समय तक मुगल वंश के पास रहा है । यह सन् 1526 से 1739 तक मुगल साम्राज्य की शान बढ़ाता रहा है काकतीय साम्राज्य के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई . तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा ।

सन् 1351 के बाद इसके बारे कोई प्रमाणित जानकारी नहीं है । यह भी कहा जाता है कि सन् 1460 में यह ग्वालियर नरेश डोगरेंद्र के हाथ आ गया था , जो उन्हें एक तुर्कराजा होशंगशाह को हराने पर , उसकी जान बख्शने की एवज में मिला था ।

इसके बाद यह हीरा कई वर्षो तक ग्वालियर के शासकों के पास रहा । फिर अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्या के पास मिला । इब्राहिम लोधी ने 1526 में विक्रमादित्या पर आक्रमण करके यह कोहिनूर हीरा उसके खजाने से हथिया लिया था ।

इसके बाद इसी वर्ष मुगल वंश के संस्थापक बाबर को यह हीरा 1526 में मिला । इसकी स्टीक जानकारी भी बाबरनामा बाबर की आत्मकथा से मिलती है ।

उसमें लिखा है कि 1294 में यह हीरा मालवा के किसी राजा के पास था और फिर यह दुनिया की बेशकीमती सौगात सैंकड़ो वर्षो बाद मुगल सल्तनत के हाथ आई है ।

बाबर को यह हीरा 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई के दौरान इब्राहिम लोधी की अकूत धन – सम्पदा से मिला था । इब्राहिम लोधी को हराने के बाद बाबर दिल्ली की गद्दी पर बैठा और मुगल वंश की नींव रखी ।

तब यह 186 कैरेट के वजन का था और इसका नाम बाबर हीरा पड़ गया था । जहां कुछ इतिहासकार एक तथ्य यह भी लिखते हैं कि बाबर को यह हीरा लोधी से नहीं बल्कि तोमर राजा विक्रमादित्य से मिला था ।

लोधी को हराने के बाद उसकी कैद में बंधी विक्रमादित्या को रिहा किए जाने पर विक्रमादित्या ने इस हीरे को बाबर को नजराने के रूप में भेंट किया था ।

नादिरशाह वंश

बाबर के बाद उसका बेटा हुमायुं सन् 1530 में गद्दी पर बैठा । लेकिन 1540 में शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर कब्जा जमा लिया । शेरशाह सूरी के राज्यकाल में कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera)का कहीं जिक्र नहीं आता ।

उसके बाद सन् 1555 में हुमायु ने दिल्ली पर फिर अपना अधिकार कर लिया । मुगल काल में फिर यह हीरा शाहजहां के काल में सामने आता है । उसने इस हीरे को अपने मयूर सिंहासन तख्त – ए – ताउस ‘ पर जड़वाया हुआ था ।

उसके बाद औरंगजेब ने इस कोहिनूर हीरा को अपने खजाने की एक दुर्लभ वस्तु की तरह सहेज कर रखा । लेकिन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो जाने पर मुगल सल्तनत हो गया ।

सन् 1739 में नादिरशाह ने आक्रमण करके मुगल सल्तनत का अंत कर दिया । उसने दिल्ली में पूरी लूट मचाई । इस लूट के वक्त जब उसने पहली बार इस कोहिनूर हीरा को देखा तो वह अवाक रह गया ।

इस प्रकाशवान हीरे को देख उसके मुंह से अचानक का पतन होना निकला ‘ कोह – इ – नूर ‘ जिसका अर्थ है ‘ रोशनी का पहाड़ । इस प्रकार नादिरशाह ने ही इसका नाम कोहिनूर हीरा रखा है ।

वह शाहजहां के तख्त – ए – ताउस व इस कीमती हीरे को अपने साथ फारस देश ले गया जिसे आज ईरान के नाम से जाना जाता है ।

अब्दाली वंश

नादिरशाह जब इसे ईरान ले गया तो वहां भी इस कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) को हथियाने के षड्यंत्र रचे जाने लगे । वहां मची उथल – पुथल में आखिर 1747 में नादिरशाह का भी कत्ल कर दिया गया ।

इन हालातों में हीरा अफगानिस्तान के राजा अहमदशाह अब्दाली के पास पहुंच गया । कोहिनूर हीरा को लेकर यहां भी हालात बिगड़ने शुरु हो गए । परिस्थितियां अब्दाली के नियंत्रण से बाहर हो गई और अक्तूबर 1772 में अब्दाली का भी उसके अपने ही किसी विश्वास पात्र ने वध कर दिया ।

उसके बाद उसके पौत्र शाहशुजा अब्दाली के हाथ सत्ता आ गई जो तैमूर शाह का बेटा था । लेकिन इसी बीच उसके दो अन्य भाई जमान शाह व महमूद शाह भी गद्दी को लेकर लड़ने लगे ।

इसमें कुछ सूबे जमान शाह के अधीन आ गए । लेकिन वह अधिक समय तक ना टिक सका । महमूद शाह ने जमान शाह को मारकर गद्दी पर कब्जा कर लिया और शाहशुजा को भी भागने पर मजबूर कर दिया ।

शाहशुजा 1812 ई . में अफगानिस्तान से कोहिनूर हीरा के साथ अपने परिवार सहित वहां से जान बचाकर लाहौर की ओर भाग निकला ।

महाराजा रणजीत सिंह

पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर तक अपना अधिकार जमा लिया था । शाहशुजा जब लाहौर की तरफ आ रहा था तो उसे कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद ने कैद कर लिया ।

यह कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) शाहशुजा की बेगम के पास था । वह किसी तरीके वहां से बच निकली और महाराजा रणजीत सिहं के पास आ पहुंची । उसने महाराजा को शाहशुजा की दयनीय हालत के बारे बताया और सहायता की फरियाद की । इसके बदले उसने यह कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को देने का वायदा किया ।

उधर महाराजा रणजीत सिंह भी कश्मीर अर्जित करने की तैयारियों में था । इस घटना ने आग में घी डालने का काम किया । महाराजा ने फौरन कश्मीर पर चढ़ाई कर दी ।

जिससे डर कर अतामोहम्मद कश्मीर से जान बचाकर भाग गया । महारजा रणजीत सिंह ने 1813 में शाहशुजा को सूबेदार की कैद से छुड़वाया , शाहशुजा ने इस सहायता के बदले यह कोहिनूर हीरा महाराजा को सौंप दिया ।

इस प्रकार कोहिनूर हीरा 1813 में महाराज रणजीत सिंह के साम्राज्य की शान बन गया ।

अंग्रेजों के अधीनस्थ

Kohinoor Heera

सन् 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मौत हो गई और उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया । पंजाब साम्राज्य के अलावा अंग्रेजों की नजर इस कोहिनूर हीरा पर भी थी ।

जिससे दोनो ओर से युद्ध छिड़ गया । अंग्रेज – सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया ।

सिखों की इस हालत के साथ ही महाराजा रणजीत सिंह की दौलत पर भी अंग्रेजें का कब्जा हो गया जिसमें कोहिनूर भी शामिल था ।

कोहिनूर हीरा (Kohinoor Heera) को लॉर्ड डलहौजी 1850 में लाहौर से मुंबई ले कर आए और वहां से छह अप्रैल , 1850 को मुंबई से इसे लंदन के लिए भेजा गया ।

तीन जुलाई , 1850 को इसे बकिंघम पैलेस में महारानी विक्टोरिया के सामने पेश किया गया , उन दिनों महाराजा रणजीत सिंह के 13 वर्षीय पुत्र दिलीप सिंह भी वहीं मौजूद थे ।

इस प्रकार इस हीरे की यात्रा का यह अंतिम पड़ाव था । यह हीरा कोहिनूर जब महारानी को दिया गया तो इसका वजन 176 कैरेट था । लेकिन महारानी की पंसद के अनुसार इसे तराशा गया जिससे यह 105 कैरेट का रह गया ।

क्या है कोहिनूर हीरे की कीमत | Price of Kohinoor Heera

यह सबसे प्राचीन हीरा है । इसे गोलकुंडा खदानों से निकला हुआ माना जाता है जो कि विश्व की प्राचीनतम खदान है । क्योंकि सन् 1730 तक इसके अलावा अन्य कोई खदान ज्ञात नहीं थी ।

सन् 1730 के बाद ब्राजील में हीरे की खानो की खोज हुई । इसलिए कोहिनूर हीरा को दुर्लभ माना गया और हर कोई इसे अपने पास रखने को लालायित रहताऔर यही कारण रहा कि इसे हर कोई हड़पता रहा ।

लेकिन किसी इसकी कीमत नहीं लगाई । क्योंकि इसे कभी बेचा या खरीदा नहीं गया । फिर भी बाबर व नादिरशाह केकाल में इसका मुल्यांकन किया गया है ।

इसका असली वजन 787 कैरेट था , मगर जब बाबर को मिला तो उस वक्त यह 186 कैरेट का था । उसने इसकी कीमत बताते हुए कहा था , ‘ यह इतना कीमती है कि दो दिन तक पूरे संसार को भरपेट भोजन दिया जा सकता है ।

इसके बाद जब यह नादिरशाह के हाथ लगा तो उसकी बेगम ने यह कहा था , कोई शक्तिशाली मनुष्य चारों दिशाओं में ऊपर की ओर पांच पत्थरों को फैके तो जो खाली स्थान बनेगा , उसे सोने वहीरे – जवाहरातों से भरा जाए , तो उसके बराबर की कीमत रखता है यह एकमात्र हीरा ।

इस प्रकार इस हीरे की कीमत की उन्होंने अपने – अपने हिसाब से व्याख्या की है । वर्तमान में लगभग 105 कैरेट ( लगभग 21.600 ग्राम ) का यह हीरा महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के ताज का हिस्सा है और इसकी कीमत लगभग एक सौ पचास हजार करोड़ बताई जाती है ।

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